Monday, September 27, 2010

घर आ जाना

डर लगता है टूट ना जाये
सांसों का यह ताना बाना
          दरस को आँखें तरस रही हैं
          एक बार तुम घर आ जाना
फिर आया मधुमास झूम कर
आंगन  उतरी  धूप  सुनहरी
कलियों ने  सौरभ घट खोले
जाग उठा है मधुकर   प्रहरी
घुली हवा मे    रजनीगन्धा
वातावरण हुआ है    चन्दन
प्राण प्राण में महक उठे तुम
रोम रोम   करता अभिनन्दन
चहक उठा  फिर   स्मृति में
वह  उन्मादित  राग  पुराना
          दरस को आँखें तरस रही हैं
          एक बार  तुम घर आजाना

कितना तरल भरा  उर घट में
फिर भी यह मन तरस रहा है
पलकों  से  झरते  हैं  निर्झर 
नेह्  नयन से  बरस   रहा है
स्वप्न के  पाखी  उडे शाख से
नींद ना   जाने कहां खो गयी
कैसे  इस  मन को समझाऊं
अब हिचकी भी बन्द हो गयी
बहुत  दिनों  से  काले कागा
भूल गये  मुन्डेर पे   आना
          दरस को आँखें तरस रही हैं
          एक बार तुम  घर आजाना
द्वार  खोलना  तुम   धीरे से
मेरे घर  का  कृष्ण   मुरारी
कहीं  सामने  पाकर  मुझको
छलक ना जाए आँख तुम्हारी
हृदय  से  संकोच   मिटाकर
सभी  दूरियां कम  कर देना
बिखर ना जाऊं  कहीं टूटकर
आलिंगन मे तुम  भर लेना  
ओ  हृदय  मे  बसने  वाले
कहाँ  तुम्हरा ठौर   ठिकाना
             दरस को आँखें तरस रही हैं 
             एक  बार तुम घर आजाना
                                           सुभाष मलिक

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