Thursday, September 23, 2010

जीवन

जाने    कितने     विध्वंस  हुए
धरती   पर     पैदा  कंस    हुए
विश्वासघात     की    चोटों   से
बंदूकों     से     विस्फोटों    से
आकंठ   भरा   पापी   छल   से
पथ भ्रष्ट  दुष्ट    अपने   बल से
मनुज मनुज को दलता रहता
जीवन फिर भी चलता रहता

यें  ऊंच  नीच     के   आडम्बर
अभिलाषा     के सूने    अम्बर
रिश्तों    के   टूटे     तार सभी
अवरुद्ध    प्रेम   के    द्वार सभी
नागफनी   सी    इन  राहों पर
निर्बल   हृदय  की   आहों   पर
तिल तिल दर्द पिघलता रहता
जीवन फिर   भी चलता रहता

चिथड़ों   में   लिपटा भूखा तन
रोटी  ढूंढ     रहा   पीड़ित मन
धंसे  दाँत   पिचके    गालों  में
फंसा जुल्म  के    जंजालों में
दोने पत्तल    चाट    चाट कर
जूठन पर दिन काट काट कर
भूखे पेट  को  मलता   रहता
जीवन फिर भी चलता रहता

जिसके   दम पर   देश खड़ा  है
माटी  में     वह   सना   पड़ा  है
पलकों   पर   है  इतना   सपना
भूखा    पेट   रहे    ना    अपना
जग  से सदा   उपेक्षित   रहकर
तिरस्कार  घृणा   सह  सह कर
पल पल हिम सा गलता रहता
जीवन फिर   भी चलता  रहता

फूँस की छत के कच्चे घर में
रूंधे  कंठ से   पीड़ित   स्वर में
दादी   कहानी   कथा    सुनाती
बिटिया   बैठी    भात    पकाती
तिमिर   घिराता  जब  घाटी का
दीप    कोई   छोटा   माटी  का
टिम टिम बुझता बलता रहता
जीवन फिर भी चलता   रहता
                       सुभाष मलिक

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