Tuesday, February 22, 2011

गाँव

पनघट ऊपर नहीं दीखती,अब पीपल की छाँव
जहाँ महकती थी मंजरियाँ कहाँ गया वह गाँव। 
 
 
अब तो स्वप्न-सरीखे लगते हुक्का,और चौपाल,
 ग्राम-सभा में घुस कर बैठे, लोभी चोर दलाल।
संवादों में घुसी सियासत  रिश्ते हो गए बोने,
मर्यादा सद्भाव समर्पण, बिक गए ओने पोने।
पँच पदों  पर  लगे हुए निज, प्रतिष्ठा के दाँव, 
जहाँ महकती थी मंजरियाँ कहाँ गया वह गाँव॥
 
बिछुवे लाल महावर मेहंदी कजरी गीत कहाँ हैं,
प्रेमचन्द के अलगु, जुम्मन जैसी प्रीत कहाँ हैं।
कुनबों का संघार हुए सब  पारिवारिक बंटवारे,
अब ठहाकों से नहीं गूँजते  घर आँगन चौबारे।
दुर्भावों  के  बीच फँसी  है  सद्भावों  की नाव,
जहाँ महकती थी मंजरियाँ कहाँ गया वह गाँव 
 
 
बरकत आशीर्वाद दुवा के शब्द नहीं मिलते हैं,
अभिनन्दन के अंतर्मन में,पुष्प नहीं खिलते हैं।
संम्बधों पर फैल चुकी अब लालच की परछाई,
कड़वी कड़वी बतियाँ करती चन्द्रकला भौजाईं।
घर की चौखट लाँघ चुके हैं शर्म हया के पाँव,
जहाँ महकती थी मंजरियाँ कहाँ गया वह गाँव॥ 
 
 
अब खेतों से पकते गुड़ की गंध नही आती है
गहना को भी मीठे रस की खीर नही भाती है
रस्म -रिवाजों के मर्यादित बन्धन टूट चुके है
चूनर- लहंगा बिछुए- नथनी पीछे छूट चुके है
पेंन्ट जींन्स के बीच ढूढती धोती अपनी ठाँव
जहाँ महकती थी मंजरियाँ कहाँ गया वह गाँव
    
सुभाष मलिक


पनघट ऊपर नहीं दीखती,अब
पीपल की छाँव
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जहाँ महकती थी मंजरियाँ कहाँ गया वह गाँव।





 अब तो स्वप्न-सरीखे लगते हुक्का,और चौपाल,


 ग्राम-सभा में घुस कर बैठे, लोभी चोर दलाल। 


संवादों में घुसी सियासत  रिश्ते हो गए बोने,


मर्यादा सद्भाव समर्पण, बिक गए ओने पोने।


पँच पदों  पर  लगे हुए निज, प्रतिष्ठा के दाँव,


जहाँ महकती थी मंजरियाँ कहाँ गया वह गाँव॥





बिछुवे लाल महावर मेहंदी कजरी गीत कहाँ हैं,


प्रेमचन्द के अलगु, जुम्मन जैसी प्रीत कहाँ हैं।


कुनबों का संघार हुए सब  पारिवारिक बंटवारे,


अब ठहाकों से नहीं गूँजते  घर आँगन चौबारे।


दुर्भावों  के  बीच फँसी  है  सद्भावों  की नाव,


जहाँ महकती थी मंजरियाँ कहाँ गया वह गाँव





बरकत आशीर्वाद दुवा के शब्द नहीं मिलते हैं,


अभिनन्दन के अंतर्मन में,पुष्प नहीं खिलते हैं।


संम्बधों पर फैल चुकी अब लालच की परछाई,


कड़वी कड़वी बतियाँ करती चन्द्रकला भौजाईं।


घर की चौखट लाँघ चुके हैं शर्म हया के पाँव,


जहाँ महकती थी मंजरियाँ कहाँ गया वह गाँव॥





अब खेतों से पकते गुड़ की गंध नही आती है


गहना को भी मीठे रस की खीर नही भाती है


रस्म -रिवाजों के मर्यादित बन्धन टूट चुके है


चूनर- लहंगा बिछुए- नथनी पीछे छूट चुके है


पेंन्ट जींन्स के बीच ढूढती धोती अपनी ठाँव


जहाँ महकती थी मंजरियाँ कहाँ गया वह गाँव





                       
सुभाष मलिक