रिश्तों के बंधन तोड़ दिए
पूजा अभिनंदन छोड़ दिए
धन दौलत की मुझे प्यास नहीं
इस बात का भी विश्वास नहीं
फिर जन्म मिलेगा दौबारा
मैं हूँ एक पागल आवारा
उस मंजिल की मुझे चाह नही
संघर्ष की जिसमे राह नहीं
है परिश्रम से प्यार मुझे
जो भी समझे संसार मुझे
जीवन मेरा बहती धारा
मैं हूँ एक पागल आवारा
अभिमान नहीं मुझको बल का
बनकर सूरज अपने कल का
बढ़ता ही गया मै रुका नहीं
कभी हार के आगे झुका नही
पुरुषार्थ मुझे सबसे प्यारा
मै हूँ एक पागल आवारा
पत्थर बनकर कभी रहा नही
पानी सा बनकर बहा नही
मै लड़ा अँधेरी रातों से
कभी डरा नही हूँ घातों से
संघर्ष किया जीवन सारा
मै हूँ एक पागल आवारा
मै मस्त रहा भूखा प्यासा
मुझे नही स्वर्ग की अभिलाषा
चिंदी चिंदी दिन जीकर भी
नयनो का आसव पीकर भी
हृदय से बही अमृत धारा
मै हूँ एक पागल आवारा
मैं परम्परा का दास नहीं
रुढी में मेरा विश्वास नहीं
इन भृष्ट उलेमा पंडो से
झूठे इनके पाखंडो से
कहो मेरा सच कब हारा
मैं हूँ एक पागल आवारा
करता हूँ प्यार मैं इन्सां से
मुझे घृणा है हर हिंसा से
कोई चमत्कार मेरे पास नहीं
मंत्रो का मुझे अभ्यास नहीं
है धर्म मेरा सबसे न्यारा
मैं हूँ एक पागल आवारा
सुभाष मलिक
सुभाष मलिक
it is a nice poem
ReplyDelete