हास्य व्यंग "कवि सम्मलेन" बी०,एच०,ई०,एल० हरिद्वार कवि वृन्द बांये से :- सर्व श्री प्रदीप चौबे , डा० वारिज़ा , डा० रमा सिंह , सुरेन्द्र शर्मा , डा० हरिओम पंवार, अरुण जैमिनी , वेद प्रकाश , शहिद हसन शहिद ,सुभाष मलिक
Saturday, December 31, 2011
नव वर्ष का आगमन
Tuesday, February 22, 2011
गाँव
पनघट ऊपर नहीं दीखती,अब पीपल की छाँव,
जहाँ महकती थी मंजरियाँ कहाँ गया वह गाँव।
अब तो स्वप्न-सरीखे लगते हुक्का,और चौपाल,
ग्राम-सभा में घुस कर बैठे, लोभी चोर दलाल।
संवादों में घुसी सियासत रिश्ते हो गए बोने,
मर्यादा सद्भाव समर्पण, बिक गए ओने– पोने।
पँच पदों पर लगे हुए निज, प्रतिष्ठा के दाँव,
जहाँ महकती थी मंजरियाँ कहाँ गया वह गाँव॥
बिछुवे लाल महावर मेहंदी कजरी गीत कहाँ हैं,
प्रेमचन्द के अलगु, जुम्मन जैसी प्रीत कहाँ हैं।
कुनबों का संघार हुए सब पारिवारिक बंटवारे,
अब ठहाकों से नहीं गूँजते घर आँगन चौबारे।
दुर्भावों के बीच फँसी है सद्भावों की नाव,
जहाँ महकती थी मंजरियाँ कहाँ गया वह गाँव
बरकत आशीर्वाद दुवा के शब्द नहीं मिलते हैं,
अभिनन्दन के अंतर्मन में,पुष्प नहीं खिलते हैं।
संम्बधों पर फैल चुकी अब लालच की परछाई,
कड़वी कड़वी बतियाँ करती चन्द्रकला भौजाईं।
घर की चौखट लाँघ चुके हैं शर्म हया के पाँव,
जहाँ महकती थी मंजरियाँ कहाँ गया वह गाँव॥
अब खेतों से पकते गुड़ की गंध नही आती है
गहना को भी मीठे रस की खीर नही भाती है
रस्म -रिवाजों के मर्यादित बन्धन टूट चुके है
चूनर- लहंगा बिछुए- नथनी पीछे छूट चुके है
पेंन्ट जींन्स के बीच ढूढती धोती अपनी ठाँव
जहाँ महकती थी मंजरियाँ कहाँ गया वह गाँव
सुभाष मलिक
पीपल की छाँव;
सुभाष मलिक
Friday, January 28, 2011
वफादार
मेरे .भीतर .कई. ठाकरे, जाने. कितने .हैं ,चौटाले
भूख बीमारी निर्धनता पर नूतन भाषण कर सकता हूँ
आश्वासनो से जनता के भूखे पेट को भर सकता हूँ
लेकिन मै सेवक जनता का मै कोई सरदार नही हूँ
निर्धनता से रिश्ता मेरा फिर भी मै गद्दार नही हूँ